क्या आपको पता है अंटार्कटिका महाद्वीप की छान-बीन करना असंभव क्यों था?

अंटार्कटिका का अन्वेषण करना असंभव क्यों था? Mysterious Facts In Hindi

Mysterious facts in Hindi: पृथ्वी के बिल्कुल निचले दक्षिणी समुद्र में मौजूद एक महाद्वीप है अंटार्कटिका, जो इंडिया से चार गुना, पाकिस्तान से 15 गुना और अमेरिका से लगभग डेढ़ गुना बड़ा है। इसके आकार के चलते इसे कैप्चर करने के लिए में कई पावरफुल देशों की आर्मी आमने सामने आ चुकी थी, तभी अचानक कुछ अजीब हुआ और सभी देशों ने अंटार्कटिका की इस जमीन से अपना क्लेम छोड़ दिया। 

पर आखिर क्यों? इससे भी ज्यादा इंट्रेस्टिंग तो यह है कि दुनिया का यह पांचवां सबसे बड़ा महाद्वीप आज से 200 साल पहले तक दुनिया के मैप से गायब था, क्योंकि हजारों सालों तक अलग अलग देशों और राजाओं के एक्सप्लोरेशन (exploration )के बावजूद भी तीन सेंचुरी तक तो इसे कोई ढूंढ ही नहीं सका था।

Why It Was IMPOSSIBLE to Explore Antarctica?

 

मानो ऐसा कोई महाद्वीप पृथ्वी के साउथ पोल पर था ही नहीं । कई एक्सप्लोरर्स को तो इस महाद्वीप को ढूंढने में अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा था और जो इस पर पहुंचे भी, उनकी भी इस जगह के अत्यधिक ठंडे टेंपरेचर और बंजर जमीन ने जान ले ली। 

पर आखिर इन हजारों सालों से इतना बड़ा महाद्वीप कहां पर छिपा हुआ था? आज के इस लेख में हम इसी के बारे में जानने वाले हैं। 

दोस्तों आज से लगभग 1900  साल पहले 100 ईसवी में फेमस रोमन एस्ट्रोनॉमर टॉलेमी ने साउथ में एक बहुत बड़े लैंडमार्क के होने की बात कही थी जिनका लॉजिक ये था कि क्योंकि पृथ्वी के नॉर्थ में और उसके बीच में काफी ज्यादा जमीन मौजूद है इसलिए उसको काउंटर बैलेंस करने के लिए उसके नीचे यानी साउथ में भी काफी बड़ा जमीन का हिस्सा होगा, जिसे सेकंड सेंचुरी में ग्रीक जियोग्राफी और मैरिन ऑफ टायर ने अपने एक मैप पर अंटार्कटिका नाम दिया। 

क्योंकि इस इमेजनरी महाद्वीप के अंटार्कटिक सर्कल के पास कहीं होने की बात कही जाती थी। लेकिन इस नाम को इस दौरान कुछ ज्यादा एक्सेप्टेंस नहीं मिली। इसके बाद फेमस रोमन स्कॉलर ने इस इमेजनरी महाद्वीप को एक और डिफरेंट नाम दिया जो था ऑस्ट्रेलिस । 

हां हां, जो नाम आज हम पृथ्वी के इस Australia महाद्वीप के लिए प्रयोग करते हैं ना ओरिजनली इस नाम को अंटार्कटिका के लिए पहले लिया गया था। ये स्टोरी भी काफी इंटरेस्टिंग है। तो देखो आज से लगभग 500 साल पहले 15वीं शताब्दी  तक दुनिया का मैप कुछ ऐसा दिखा करता था। 

15वीं शताब्दी  तक दुनिया का मैप कुछ ऐसा दिखा करता था।


जिसमें आपको ऑस्ट्रेलिया तो नहीं दिखेगा लेकिन पृथ्वी के बिल्कुल साउथ में टेरा ऑस्ट्रेलिस  नाम का एक बहुत बड़ा महाद्वीप दिखेगा क्योंकि मैप मेकर्स ने इस महाद्वीप की फेमस कहानियों से इंस्पायर्ड होकर बनाया था। पर लेट 15 सेंचुरी तक कई एक्सप्लोरेशन के बाद ये ऑलमोस्ट क्लियर हो गया कि साउथ में इतने बड़े साइज का कोई भी महाद्वीप मौजूद ही नहीं है। 

पर ऐसा नहीं था , क्योंकि सन 1604 में डच एक्सप्लोरर विलियम जानसजून ने साउथ समुद्र में एक बड़े महाद्वीप की डिस्कवरी की थी, जिसे नाम दिया गया न्यू हॉलैंड यानी सदर्न लैंड माइंस। इस समय कई यूरोपियन को लगा कि हां, यही है पृथ्वी का वह खोया हुआ कॉन्टिनेंट जिसे हम इतने हजारों सालों से ढूंढ रहे थे। 

लेकिन जल्द ही ऑस्ट्रेलिया के एक्सप्लोरेशन के दौरान यूरोपियन कंट्रीज समझ गई थी कि यह महाद्वीप उतना भी बड़ा नहीं है, जितना उन्होंने सोचा था। जिसके बाद कई यूरोपियन कंट्रीज ने मिलकर दक्षिणी समुद्र में कई और बड़े एक्सप्लोरेशन मिशन किए। जो मिशन इतने ज्यादा खतरनाक थे कि एक्सप्लोरेशन मिशन के दौरान कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 

क्योंकि दक्षिणी समुद्र को दुनिया के कुछ सबसे खतरनाक समुद्रों में से एक माना जाता है, जहां केवल बड़ी समुद्री लहरें ही नहीं, बल्कि समुद्र में तैरती बड़े बड़े बर्फ की तीखी चट्टानें भी आपके जहाज के लिए एक बड़ा खतरा बन सकती थी। 

खास करके तब, जब आप 18 वीं शताब्दी  में हैं, जहां आज के जैसे न तो कोई जीपीएस टेक्नोलॉजी थी और न ही कोई रडार सिस्टम था। मॉडर्न टेक्नोलॉजी के नाम पर आपके पास केवल एक कंपास और एक घड़ी थी। नेविगेशन ज्यादातर आपको अपने एक्सपीरियंस पर करना होता था। 

और हां, एक और इंपॉर्टेंट बात ये है कि उस समय ज्यादातर जहाज इंसानों के द्वारा चप्पू चलाकर या फिर सेल  क्लॉथ के जरिए समुद्र की तेज हवाओं से चलाए जाते थे। लेकिन 18th सेंचुरी तक इन सब एक्सप्लोरेशन मिशंस के रिजल्ट सेम थे। 

यानी किसी को भी पृथ्वी के नीचे टेराऑस्ट्रेलिस जैसा कोई भी बड़ा महाद्वीप नहीं मिला। अब तो दुनिया को ये भी लगने लगा था कि शायद वहां कोई महाद्वीप मौजूद ही नहीं है और दक्षिण समुद्र में सबसे नीचे की ओर जो महाद्वीप मौजूद है वो न्यू हॉलैंड है। 

जिसके बाद इस बात को ऑफिशियल करते हुए अगली सेंचुरी में ब्रिटिश एक्सप्लोरर मैथ्यू फ्लिंडर्स ने न्यू हॉलैंड को ही टेरा ऑस्ट्रेलिस  नाम दे दिया। यानी जो नाम ओरिजिनल अंटार्कटिका के लिए रखा गया गया था वो नाम अंटार्कटिका को ना खोजे जाने की निराशा में न्यू हॉलैंड महाद्वीप को ही दे दिया गया। 

और क्योंकि उस समय ब्रिटेन एक वर्ल्ड पावर था इसलिए इस नाम को जल्द ही पूरी दुनिया ने एडॉप्ट कर लिया और 18th सेंचुरी तक ऑस्ट्रेलिया को इंक्लूड करने के बाद हमारा मैप कुछ इस तरह का दिखने लगा। 

18th सेंचुरी तक ऑस्ट्रेलिया को इंक्लूड करने के बाद हमारा मैप कुछ इस तरह का दिखने लगा

 

जिसमें अंटार्कटिक सर्कल को आप पूरी तरह से खाली देख सकते हो। जहां पर कोई भी महाद्वीप मौजूद नहीं है।


अंटार्कटिका की खोज कैसे हुई ?

साल 1772 में ब्रिटिश एम्पायर द्वारा उनके सबसे बेहतर नेवी ऑफिसर कैप्टन जेम्स कुक को कहानियों वाले बड़े से महाद्वीप को दक्षिण समुद्र में ढूंढने का जिम्मा दिया गया। 

इस सफर के लिए कैप्टन कुक को दो शिप और 192 साथियों की एक टीम दी गई। कैप्टन कुक एक माहिर एक्सप्लोरर और नेविगेटर थे, जिन्होंने 1768 से लेकर 1779 तक इंडियन ओशन और पैसिफिक ओशन में कई बड़े एक्सप्लोरेशन मिशन किए थे। 

वो ऐसे पहले यूरोपियन थे, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया और हवाई आइलैंड के लोगों के साथ कॉन्टैक्ट किया था और इसीलिए जब साल 1772 में ब्रिटिश रॉयल सोसाइटी ने इन्हें अंटार्कटिक सर्कल के इमेजनरी आइलैंड को ढूंढने का काम दिया तो वो अपने इस काम के लिए काफी एक्साइटेड हो गए थे। 

वो इतिहास में पहला इंसान बनना चाहते थे, जिसने पृथ्वी के नीचे में मौजूद एक खोए हुए महाद्वीप को ढूंढा हो। लेकिन कैप्टन कुक का ये सपना सपना ही रह गया। क्योंकि करीब तीन सालों तक दक्षिणी समुद्र की जानलेवा कंडीशन में खोज के बावजूद उन्हें वहां पर इस महाद्वीप का कोई भी अता पता नहीं मिला। 

उन्होंने थोडा हिम्मत दिखाते हुए 17 जनवरी को समुद्र के कुछ सबसे खतरनाक हिस्से में से एक अंटार्कटिक सर्कल में भी एंट्री कर ली और अपने जहाज और अपने पूरे क्रू की जान को दांव पर लगाते हुए भी खोज की। लेकिन फ्रीजिंग वॉटर और समुद्र में तैरती बर्फ के टुकड़ों के अलावा उन्हें वहां पर कुछ भी नहीं दिखा। 

अब कैप्टन कुक के इस असफल एक्सप्लोरेशन के बावजूद भी अभी भी दुनिया के कई सुपरपावर एम्पायर को यकीन था कि पृथ्वी के नीचे कोई बड़ा महाद्वीप मौजूद है। जिनमें से एक था रशियन एम्पायर, जिसने 18th सेंचुरी की शुरुआत में दक्षिण समुद्र  की और अपनी कई एक्सप्लोरेशन टीम को भेजा। 

जिनमें से एक टीम को लीड कर रहे थे रशियन नेवल ऑफिसर फैबियन गोल्ड वॉन बैलेंस, जो किस्मत और अपनी टीम की मेहनत से कामयाब भी हुए और फाइनली 20 जनवरी 1820 में ये इतिहास के पहले इंसान बने जिन्होंने अंटार्कटिका को अपनी आंखों से देखा और इस तरह हमने बर्फ से ढकी अनोखी दुनिया को ढूंढ निकाला। 

लेकिन आखिर ये महाद्वीप कितना बड़ा है? क्या इस महाद्वीप पर जानवर या इंसान रहते हैं या फिर ये ऐसी कोई जगह है जहां पर इंसान कॉलोनी बना सकते हैं। अभी भी ये कुछ ऐसे सवाल थे जिसका जवाब हमें इस बड़े से महाद्वीप के एक्सप्लोरेशन और मैपिंग करने के बाद ही मिल सकता था। 

जहां से सफर शुरू हुआ कई किलोमीटर की बर्फ की चादर से ढके दुनिया के इस न्यूली डिस्कवर पांचवे सबसे बड़े और सबसे हार्श एनवायरनमेंट वाले अंटार्कटिक महाद्वीप की मैपिंग का, जिसने इंसानियत के सामने फिर से कई चुनौतियां रख दी और कई लोगों की जान भी ले ली। 


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अंटार्कटिका का मानचित्रण कैसे किया गया?

19th सेंचुरी में दुनिया के  अलग अलग देशों ने कई बड़ी एक्सप्लोरेशन टीम को अंटार्कटिक महाद्वीप को मैप करने और इसे को क्रॉस करते हुए साउथ पोल पर सबसे पहले पहुंचने के लिए भेजा ताकि वो कंट्रीज साउथ पोल पर पहले पहुंचने वाले देश की लिस्ट में सबसे पहले नंबर पर आकर इतिहास रच सके। 

पर ज्यादातर मिशन फेल रहे क्योंकि ज्यादातर टीम यहां के एक्स्ट्रीम कंडीशंस को झेल ही नहीं पाती थी और कुछ टीम के लोग तो अंटार्कटिका को पार करने के दौरान साउथ पोल पर पहुंचने से पहले ही इसकी बर्फ के चादरों के आगोश में समा गए थे। 

साल 1911 में दुनिया के दो देशों की टीम अंटार्कटिका के इस एक्स्ट्रीम वेदर को पार करते हुए इस रेस में सबसे आगे तक पहुंच गई। इनमें से पहली टीम को लीड कर रहे थे नॉर्वे के रोआल्ड  एमंडसन और दूसरी टीम को ब्रिटिश रॉयल नेवी ऑफिसर रॉबर्ट फाल्कन स्कॉट। दोनों देश की टीम के बीच रेस काफी कांटे की थी, लेकिन आखिरकार 14 दिसंबर 1911 को रोआल्ड  एमंडसन और उनकी टीम ब्रिटेन की टीम से पहले ही साउथ पोल तक पहुंच गई और इस तरह नॉर्वे साउथ पोल तक पहुंचने वाला पहला देश बना, जबकि ब्रिटेन दूसरा। 

लेकिन असली कहानी तो इसके बाद शुरू हुई क्योंकि साउथ पोल तक एक्सट्रीम वेदर कंडीशन में यात्रा करने के बाद अब बारी थी वापस से इस खतरनाक जर्नी को दोबारा से पार करते हुए शिप तक लौटना। अब नॉर्वे की टीम इसमें काफी खुशकिस्‍मत रही कि वो किसी तरह सर्वाइव करके अपनी शिप तक वापस पहुंच गए। 

पर ब्रिटेन की टीम जिसे ऑफिसर रॉबर्ट फाल्कन स्कॉट लीड कर रहे थे, उनकी किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी क्योंकि 1287 किलोमीटर की वापस कैंप तक का ये सफर उनके और उनकी टीम की जिंदगी का आखिरी सफर साबित हुआ और अंटार्कटिका की एक्सट्रीम वेदर ठंड और भूख के चलते ऑफिसर रॉबर्ट फाल्कन स्कॉट और उनकी पूरी टीम ने रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया। 

जो दिखाता है कि जमीनी सफर के जरिए अंटार्कटिका का एक्सप्लोरेशन कितना ज्यादा खतरनाक था। लेकिन इसके बावजूद भी धीरे धीरे एक्सप्लोरेशन आगे बढ़ते रहे। कई टीम ने अपनी जान गंवाई पर उनके एफर्ट्स के चलते इस महाद्वीप के खाली स्थान धीरे धीरे भरने लगे और साल 1920 तक हमें अंटार्कटिका का कुछ ऐसा मैप मिल चुका था जिसमें हल्का नारंगी वाला हिस्सा मैप किया जा चुका था। 

1920 तक हमें अंटार्कटिका का कुछ ऐसा मैप मिल चुका था जिसमें ये वाला हिस्सा मैप किया जा चुका था।


जबकि ये लाल रीजन अभी भी Unmapped थे क्योंकि यहां की एक्सट्रीम वेदर कंडीशन के कारण यहां तक कोई जा ही नहीं पा रहा था। जिन हिस्सों को मैप करने में हमारा साथ दिया। 17 दिसंबर 1903 में हुई इंसानी इतिहास की एक बहुत बड़ी डिस्कवरी ने कि और वह डिस्कवरी थी हवाई जहाज की जिसने इंसानी इतिहास को बदल कर रख दिया और हमें आसमान में उड़ने की आजादी दे दी। 


आकाश ने अंटार्कटिका का मानचित्र बनाने में कैसे मदद करी 

हवाई जहाज के जरिए अब हम केवल जमीनी सफर के थ्रू ही नहीं बल्कि आसमान में उड़ते हुए भी बड़े पैमाने पर किसी जमीन को देखकर मैप कर सकते थे। 

बिना उसके एक्सट्रीम वेदर कंडीशन को झेले वो भी जमीनी एक्सप्लोरेशन से काफी ज्यादा तेजी और बड़े पैमाने पर जिसको दुनिया ने भी समझा और साल 1928 में एक बुलेट शेप्ड एयरक्राफ्ट के जरिए ब्रिटिश पायलट विल्किंस और को पायलट कार्ल बेल एल्सन ने  मैपिंग का मिशन शुरू किया और लगभग एक दशक तक लगातार इस पर कई और हवाई जहाज के जरिए एक्सप्लोरेशन मिशन किए गए। 

जिन सक्सेसफुल उड़ान के बाद हमने फाइनली अंटार्कटिका के उन रीजन को भी मैप कर लिया, जहां तक कोई इंसान पहुंच नहीं पा रहा था। जिन एक्सप्लोरेशन मिशन के दौरान सुपर पावर देश  ये समझ चुके थे कि अंटार्कटिका केवल बर्फ की चादर वाली बेजान जगह से काफी बढ़कर है। जहां नीचे कई बड़े बड़े नेचुरल रिसोर्सेज मौजूद है। जिन्हें कंट्रोल करना किसी भी देश का भविष्य बदल सकता है। 

और यहां से शुरू हुई एक रेस जिसमें दुनिया की सभी बड़ी सुपर पावर अब इस महाद्वीप पर अपना हक जताना चाहती। 


अंटार्कटिका का मालिक कौन है?

तो साल 1940 तक दुनिया की अलग अलग पावर्स ने अपनी बडी बडी मिलिट्री स्क्वार्ड को अंटार्कटिका में भेज दिया था। जिसके जरिए ये देश अंटार्कटिका के अलग अलग हिस्सों पर अपना हक जता रहे थे। 

असल में ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच अंटार्कटिका की जमीन के क्लेम को लेकर टेंशन इतनी बढ़ चुकी थी कि दोनों ने अपनी नेवी एक दूसरे के खिलाफ तक उतार दिए थे। इसके अलावा ब्रिटेन ने तो अपने टेरिटरी क्लेम को और पक्का करने के लिए अर्जेंटीना और चिली के खिलाफ इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में अपील भी दायर कर दी थी। 

अभी इस समय तक लग ही रहा था कि जो दुनिया अभी दो बडे बडे विश्व युद्ध से बाहर निकली है वो इस बर्फ से ढकी बेजान जमीन के लिए दोबारा से एक विश्व युद्ध की ओर जाने वाली है। लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ और इंसानों ने अपने काम करने के नेचर को छोडते हुए विज्ञान की राह को चुनने का फैसला लिया। 

देखो फाइनली यूनाइटेड स्टेट्स, यूनाइटेड किंगडम ,सोवियत यूनियन और दूसरे देशों ने मिलकर लाइन में अंटार्कटिक संधि को साइन किया, जिसके तहत अंटार्कटिका में मिलिट्री एक्टिविटी को बैन करते हुए केवल साइंटिफिक इन्वेस्टिगेशन की इजाजत दी गई। और इस संधि के जरिए यहां पर किए गए सभी क्लेम्स को भी पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया गया। 


अंटार्कटिका के नीचे क्या छिपा है?

साल 1970s में अंटार्कटिका पर पहली बार सैटेलाइट के जरिए रडार टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया गया, जिसने इंसानों को पहली बार कई किलोमीटर बर्फ की चादर से ढके इस महाद्वीप के इंटीरियर को देखने का मौका दिया। 

इस दौरान केवल रडार टेक्नोलॉजी की मदद से ही वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका के इंटीरियर में तीन किलोमीटर नीचे छिपी लगभग 400 पुरानी झीलों को डिस्कवर कर लिया था और दो साल में यहां रशियन साइंटिस्ट द्वारा दुनिया की सबसे बड़ी सब ग्लेशियर झील की डिस्कवरी की गई थी, जिसे लेक वॉस्टॉक नाम  दिया गया, जो इसकी 3.5 किलोमीटर बर्फ की चादर के नीचे ढकी है। 

वैज्ञानिकों के लिए अंटार्कटिका के ये सभी झीलों से काफी ज्यादा इंपॉर्टेंट है, जो आज भी इस महाद्वीप के बर्फ के ढकने से पहले यहां पर मौजूद लाइफ के कई राज अपने अंदर छिपाए हुए है। 

जैसे कि साल 2014  में यहां पर एक झील में ड्रिल के थ्रू निकाले गए सैंपल में वैज्ञानिकों को यहां पर माइक्रोऑर्गेनिज्म का एक पूरा ऐसा इकोसिस्टम मिला जो कई मिलियन सालों से इस जगह के बर्फ में ढके होने के बावजूद बिना सनलाइट के मीथेन अमोनिया को एनर्जी के रूप में कन्वर्ट करते हुए ग्रो हो रहे हैं। 

अब रिसर्चर्स के अनुसार अंटार्कटिका की बर्फ के नीचे कई माउंटेन रेंज और तीन गहरी घाटियां मौजूद है। जिनमें सबसे बडी घाटी 350 किलोमीटर लंबी और 35 किलोमीटर चौड़ी है। 

अगर आप सोच रहे हैं कि भविष्य में कोई ऐसा दिन होगा जब ये बर्फ निकलेगी और हम अपनी आंखों से दुनिया के दूसरे महाद्वीपों की तरह अंटार्कटिका की भी इस खूबसूरत जियोग्राफी को देख सकेंगे तो शायद ये दिन कभी नहीं आएगा क्योंकि नेशनल स्नो एंड डाटा सेंटर के अकॉर्डिंग अंटार्कटिका की सारी बर्फ पिघलने का मतलब है कि इंटरनेशनल सी लेवल ऑलमोस्ट 200 फीट यानी कि 60 मीटर तक बढ़ जाएंगे जो पृथ्वी के  बहुत से महाद्वीपों को ढक देने के लिए काफी होगा। 

और वैसे भी ऑलरेडी अंटार्कटिका तो सी लेवल से काफी नीचे है। यानी बर्फ पिघलने के बावजूद भी अंटार्कटिका महाद्वीप का बहुत बड़ा हिस्सा समुद्र के नीचे ही डूबा हुआ होगा। 


निष्कर्ष

तो दोस्तों ये थी स्टोरी दुनिया के सबसे आखिरी और पांचवें सबसे बड़े महाद्वीप अंटार्कटिका की डिस्कवरी की और इसकी एक्सप्लोरेशन की जो कि दिखाता है कि अगर इंसान चाहे तो कुछ भी इम्पॉसिबल नहीं है। अंटार्कटिका के इस बर्फ के नीचे ऐसे बहुत सारे राज आज भी दफन है। इनमें से कुछ राज ऐसे भी है जो हमें एलियंस की तरफ इशारा करते हैं। 

Vinod Pandey

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